उपनिषदीय दर्शन का मूल्यांकन कीजिए तथा इस दर्शन में निहित शिक्षा पर प्रकाश डालिए।
प्रश्न | उपनिषदीय दर्शन का मूल्यांकन कीजिए तथा इस दर्शन में निहित शिक्षा पर प्रकाश डालिए। |
विश्वविद्यालय नाम | महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय , और अन्य |
सेमेस्टर | प्रथम -01 |
संछिप्त जानकारी | इस पेज में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय बी.एड के प्रथम सेमेस्टर के शिक्षा का समाजशास्त्रीय एवं दार्शनिक आधारगत परिप्रेक्ष्य के उपनिषदीय दर्शन का मूल्यांकन कीजिए तथा इस दर्शन में निहित शिक्षा पर प्रकाश डालिए। उतर दिया गया है | |
VVI NOTES.IN के इस पेज में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय बी.एड के प्रथम सेमेस्टर के शिक्षा का समाजशास्त्रीय एवं दार्शनिक आधारगत परिप्रेक्ष्य सिलेबस , शिक्षा का समाजशास्त्रीय एवं दार्शनिक आधारगत परिप्रेक्ष्य प्रश्न – उपनिषदीय दर्शन का मूल्यांकन कीजिए तथा इस दर्शन में निहित शिक्षा पर प्रकाश डालिए। अथवा उपनिषदीय शिक्षा व्यवस्था का भारतीय शिक्षा पर प्रभाव पर निबन्ध लिखिए। शामील किया गया है | |
प्रश्न 2 उपनिषदीय दर्शन का मूल्यांकन कीजिए तथा इस दर्शन में निहित शिक्षा पर प्रकाश डालिए।
अथवा
उपनिषदीय शिक्षा व्यवस्था का भारतीय शिक्षा पर प्रभाव पर निबन्ध लिखिए।
उत्तर –
उपनिषद् दर्शन का मूल्यांकन
उपनिषदों में यह वर्णन किया गया है कि अपने आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार करके जीव ‘एकेन विज्ञानेन सर्व विज्ञातं भवति’ इस उपनिषद्-वाक्य के अनुसार सभी वस्तुओं के ज्ञान प्राप्त करके स्वयं अनुभव कर लेता है कि यह सब ब्रह्म-स्वरूप है। अतः संसार की सभी वस्तुओं का अस्तित्व एवं विनाश जिस सत्ता के कारण होता है उसका ज्ञान मोक्ष की प्रगति में आवश्यक है। इसी कारण सभी उपनिषदों में परम सत्ता की खोज के लिए एक निरन्तर प्रयास दिखलाई पड़ता है।
यदि शिक्षा दर्शन के रूप में देखा जाए तो उपनिषदें दार्शनिक चिन्तन के भण्डार हैं और उनके दार्शनिक विचारधाराओं के स्रोत हैं। षड् दर्शनोंयाय वैशेषिक, सांख्य-योग, वेदान्त और मीमांसा का विकास इन्हीं के आधार पर हुआ है। यद्यपि उपनषिदों में शिक्षा-विषय पर स्वतन्त्र रूप से विचार नहीं किया गया है, फिर भी शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियों के सम्बन्ध में उपयुक्त प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही शिक्षक, शिक्षार्थी, अनुशासन व्यवस्था, विद्यालय आदि के विषय में उपनिषद् काल में पर्याप्त सामग्री मिलती है।
आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य एक मनोशारीरिक प्राणी है। तैत्तिरीयोपनिषद् में उसे पंचकोषीय प्राणी कहा गया है। उपनिषदों में मनुष्य के अन्तःकरण-मन, अहंकार और बुद्धि की विशद विवेचना की गई है। इससे सीखने के स्वरूप और क्रिया का स्पष्ट ज्ञान होता है। उपनिषदों में शिक्षण की जिन विधियों (प्रश्नोत्तर, प्रतिगमन, कथा, व्याख्या और विचार-विमर्श एवं तर्क) का प्रयोग किया गया है, वे सभी आज शिक्षण की युक्तियों के रूप में प्रयोग की जाती हैं। सीखने वाला श्रवण (अध्ययन) के बाद यदि मनन (चिन्तन) और निदिध्यासन (नित्य अभ्यास) करें तो निःसन्देह सीखना स्थायी होगा। आज के शिक्षक इससे लाभ उठा सकते हैं।
स्पष्ट है कि यदि भारतीय दर्शन के अन्तर्गत उपनिषदीय-चिन्तन को देखा जाए तो वह आधुनिक युग की शिक्षा के लिए एक महत्त्वपूर्ण चिन्तन है। आधुनिक युग विज्ञान का युग है जिसमें जीवात्मा को मन की शान्ति के लिए प्रयास करना पड़ता है, पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण के कारण जीव का मन अस्थिर हो भटक रहा है। उपनिषदीय चिन्ताओं में आत्मानुभूति पर विशेष बल देकर मनुष्य के मन की शान्ति की बात कही गई है। विभिन्न मूल्यों का ह्रास न हो। इसके लिए स्व-शिक्षा स्व-नियन्त्रण पर बल दिया गया है। इस प्रकार आज की शिक्षा को उचित दिशा देने के लिए उपनिषदीय दर्शन आज भी शिक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं, बशर्ते हम मनुष्यों के सर्वांगीण विकास के लिए उस दिशा में प्रयासरत हों।
उपनिषद् दर्शन में शिक्षा का अर्थ
उपनिषदों के अन्तर्गत शिक्षा के लिए विद्या शब्द का प्रयोग किया गया है और विद्या को अमृत प्राप्ति अर्थात् आत्मानुभूति का साधन माना गया है (विद्या अमृतमश्नुते) उपनिषदों के अनुसार आत्मानाभूति के साधन हैं— ज्ञान, कर्म और योग। इस प्रकार उपनिषदों के अनुसार वास्तविक शिक्षा वह है जो हमें ज्ञान, कर्म व योग साधना में प्रशिक्षित करती है, हमें आत्मानुभूति करने योग्य बनाती है।
उपनिषद् दर्शन में शिक्षा के उद्देश्य
उपनिषद् दर्शन में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य निम्न को बताया गया है-
(1) विद्या से असत्य का नाश होता है और आनन्द की प्राप्ति होती है। आनन्द ब्रह्म या आत्मा का शाश्वत स्वरूप है। आनन्द का प्रथम और निम्नतम लक्ष्य ‘अन्नमय’ है अर्थात् जीवन के भौतिक पक्ष की प्राप्ति आनन्द प्राप्ति का प्रारम्भिक लक्षण है। अतः शिक्षा का प्रथम उद्देश्य भौतिक जीवन की प्राप्ति है।
(2) विद्या स्वस्थ शरीर के निर्माण से सम्बन्धित है। यह भौतिक स्वरूप से उच्चतर होता है। प्राण ही वह शक्ति है जिसके द्वारा वनस्पति तथा प्राणी जगत श्वास लेता है। यही ‘प्राणमय’ स्वरूप है।
(3) उपनिषद् दर्शन में शिक्षा का उद्देश्य बालक का मानसिक विकास करना है। मानव जाति अन्य जातियों से इस कारण उच्च मानी जाती है क्योंकि उसमें मनस होता है जिसके द्वारा वह विचार कर सकती है। यही आनन्द का तीसरा रूप ‘मनोमय’ है। शिक्षा का चतुर्थ उद्देश्य है बालक का सत्य-असत्य तथा अच्छाई-बुराई में अन्तर करना सिखाया जाए। इसी को ‘विज्ञानमय’ कोष कहा गया है। शिक्षा का पंचम उद्देश्य आत्मानुभूति है। यह आत्मा या आनन्द का सर्वोच्च स्थान है। इस स्थिति में ज्ञाता, ज्ञेय तथा ज्ञान के बीच समस्त भेद समाप्त हो जाते हैं। यह आत्मा का अन्तिम स्वरूप ‘आनन्दमय’ कोष है।