उच्च प्राथमिक शिक्षण शास्त्र हिंदी
uchch praathamik shikshan shaastr hindee
TOPIC | उच्च प्राथमिक शिक्षण शास्त्र हिंदी |
COURSE | BIHAR D.El.Ed |
YEAR | 2nd YEAR |
PAPER | S-9 (Optional) |
SHORT INFO | इस पेज में बिहार डी.एल.एड सेकेण्ड इयर के पेपर S-9 के नोट्स दिया गया है | |
vvinotes.in के एस पेज में बिहार डी.एल.एड सेकेण्ड इयर के पेपर S-9 में उच्च प्राथमिक शिक्षण शास्त्र हिंदी के सिलेबस ,नोट्स ,क्वेश्चन पेपर को शामिल किया गया है |
Q. 1. भाषा विज्ञान के स्वरूप पर प्रकाश डालें।
अथवा, भाषा विज्ञान क्या है? भाषा विज्ञान कला है अथवा विज्ञान?
उत्तर :
भाषा-विज्ञान भाषा के अध्ययन की वह शाखा है जिसमें भाषा की उत्पत्ति, स्वरूप, विकास आदि का वैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है। भाषा-विज्ञान, भाषा के स्वरूप, अर्थ और सन्दर्भ का विश्लेषण करता है। भाषा के दस्तावेजीकरण और विवेचन का सबसे प्राचीन कार्य 6ठी (छठी) शताब्दी के महान भारतीय वैयाकरण पाणिनी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘अष्टाध्यायी’ में किया है।भारतीय मनीषियों ने शब्द को ब्रह्म की श्रेणी प्रदान कर भाषा की महत्ता को रेखांकित किया था। भाषा-विज्ञान के अध्येता भाषाविज्ञानी कहलाते हैं। भाषा-विज्ञान, व्याकरण से भिन्न है।
भाषा के व्यापक एवं संकुचित रूप में उसके स्वरूपों को समझने या निर्धारित करते समय हमें पक्षियों के कलरव से लेकर सर्पों की फुफकार, जानवरों की हुंकार, गार्ड की झण्डी, गूंगों के इशारों तक की ओर भी दृष्टिगोचर करनी पड़ती है। साथ ही वाणी के संकीर्ण स्वरूप का भाषा विज्ञान के अन्तर्गत अध्ययन करना पड़ता है। किन्तु दुर्भाग्य के साथ कहना पड़ता है कि भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन हेतु अन्य प्राणियों की बोली का परित्याग कर केवल मानव की भाषा तक ही सीमित रहना पड़ता है। इसमें भी अन्य उपांगों द्वारा निःस्त व्यवहारों का तिरस्कार कर केवल वाणी को ही अवलम्बन मानते हैं और सगर्व उसका ही अध्ययन करते हैं। नन्हें शैशवों की या भिखारी के मौन हाथों अथवा गूंगे को इंगित भाषा की भाषा विज्ञान में वैज्ञानिक अययन की कोई जरूरत नहीं, इसके अतिरिक्त वाणी से अभिव्यक्त सम्पूर्ण ध्वनियों का भी वैज्ञानिक अध्ययन में कोई महत्व नहीं, न हमें अट्टहास से जरूरत है और न क्रन्दन से, न घोड़े के संचालकों की टकाटक शब्द या किसी की आपत्ति में सहानुभूति और दयार्द्रचित्त चच-चच शब्द से, न गाड़ी की पें पें, न भेड़ों की में-में, या मेढ़कों की भंक-भैक से प्रयोजन है।”
यहाँ तो हमें मतलब है मनुष्य की वाणी द्वारा प्रयुक्त ऐसी ध्वनियों से जो अध्ययन के द्वारा विश्लेषण में आ जाय और जिनके इधर-उधर के हेरा-फेरी उलट पलट से कोई सार्थक शब्द का निर्माण हो सके। हमें तो प्रयोजन है ऐसी ध्वनियों से जिनके द्वारा एक मानव अन्य मानव पर अपने विचार को प्रकट कर सके जो सार्थक हो, मनुष्य द्वारा उच्चरित हो और जिससे दूसरा मानव भी अर्थ को ग्रहण कर सके। इस परिप्रेक्ष्य में हमें भाषा शब्द पर ही चिंतन करने के लिए विवश होना पड़ता है।
भाषा शब्द बहुत ही विस्तृत है। इसका विकास संस्कृत की ‘भाष्’ धातु से हुआ है जिसका प्रयोग व्यक्ति वांचि अर्थात् वाणी के लिए किया जाता है। इसमें पशु-पक्षियों की बोली से लेकर प्रकाण्ड पण्डितों तक की भाषा भी समाहित हो जाती है। लेकिन मनुष्य जिस भाषा का प्रयोग अपने बोलने अथवा विचार-विनिमय के लिए करता है वह अन्य प्राणियों की भाषा से इतर है। अतः हमें कहना पड़ता है कि विचार-विनिमय और भावाभियक्ति के सम्पूर्ण साधन भाषा के क्षेत्र में आते है। अतः भाषा विज्ञान के अन्तर्गत हम जिस भाषा का अध्ययन करते हैं उसका क्षेत्र बहुत ही संकुचित है। इसमें उसी सार्थक ध्वनि समूह को स्थान दिया जाता है जिसका अर्थ विश्लेषित हो सके।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः उसे हमेशा विचार-विनिमय की जरूरत पड़ती है। इस कार्य को वह अनेक प्रकार से सम्पन्न करता है। वास्तव में भाषा का रूप और भी सीमित हो जाता है। संसार के समस्त भाषा शास्त्रियों ने भाषा के विभिन्न शास्त्रीय अर्थ को स्पष्ट करते हुए उसकी परिभाषा निर्धारित करने का प्रयत्न किया है। इनमें भारतीय और पाश्चात्य, प्राचीन और आधुनिक सभी वर्गों के विद्वान आते हैं। भाषा की परिभाषा को आबद्ध करने का अनादि काल से ही प्रयास होता चला आया है। यहाँ हम सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा दी गई परिभाषाओं पर ही विचार करेंगे।
प्लेटो के अनुसार- ‘विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है, किन्तु जब वही ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।
“वान्द्रिय महोदय ने भाषा की परिभाषा देते हुए कहा है कि भाषा एक तरह का चिह्न से तात्पर्य उन प्रतीकों से है जिनकी सहायता से मानव अपना विचार प्रदर्शित करता है। ये प्रतीक नेत्र ग्राह्य, श्रोत्र ग्राह्य या स्पर्श ग्राह्य इत्यादि अनेक प्रकार के होते हैं। और वास्तव में श्रोत्रग्राह्य प्रतीक भाषा की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है । ”
भाषा विज्ञान की परिभाषा देते हुए स्रुतेवाँ के शब्दों में- “A Language is a system of arbitrary Voc. I Symbols by means of which members of a social group co-operate and interact.”
ए० ए० कार्डीनर के अनुसार — “विचाराभिव्यक्ति के लिये व्यक्त ध्वनि संकेत ही भाषा है।” भाषा की यथावत रूप से परिभाषा में देते हुए विश्वकोष (एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका) मे लिखा है कि Language may be defined as an arbitrary system of vocal symbols by means of which human beings, as members of a social group and participants in culture ineract and communicate.”
सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक जेस्पर्सन ने इस प्रकार भाषा विज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा है- ‘मनुष्य ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा अपने विचार प्रकट करता है। मानव-मस्तिष्क वस्तुतः विचार प्रकट करने के लिए ऐसे शब्दों का निरन्तर प्रयोग करता है। इस तरह के कार्य-कलाप को भाषा कहते हैं।”
हेनरी स्वीट के अनुसार Language is expression of humam thought by means of speech, sounds or articulate sounds.”.
महान दार्शनिक प्लेटो के कथनानुसार- “विचार और भाषा में बहुत थोड़ा ही अन्तर है, विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है, परन्तु वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं। (साफिस्ट)
मोरिया ए० पाइ तथा फ्रेंकग्यानोर ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘डिक्शनरी ऑव लिंग्विस्टिक्स’ में भाषा की परिभाषा देते हुए इस प्रकार लिखा है-” भाषा उस सार्थक और विश्लेषण समर्थ मानवोच्चारित ध्वनियों को कहते हैं, जिनका प्रयोग मानव विचारों और भावों को व्यक्त करने के लिए करता है। ”
ब्लॉस और ट्रेगर के कथनानुसार – “भाषा ऐच्छिक वाक् प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा मानव समुदाय परस्पर सहयोग करता है। ”
उपरोक्त पाश्चात्य भाषाविदों के अतिरिक्त भारतीय मनीषियों ने भी भाषा – विज्ञान की परिभाषा अलग-अलग ढंग से दी है जिनमें प्रमुख इस प्रकार हैं— डॉ० श्याम सुन्दर दास के कथनानुसार – ” भाषा-विज्ञान भाषा की उत्पत्ति, उसकी बनावट और उसके ह्रास की व्याख्या करता है।” भाषा-विज्ञान नामक अपनी कृति में वे इस तरह लिखते हैं-” भाषा-विज्ञान उस शास्त्र को कहते हैं जिसमें भाषा शास्त्र के भिन्न-भिन्न अंगों ओर स्वरूपों का विवेचन तथा निरूपण किया जाता है—–सारांश यह है कि भाषा-विज्ञान की सहायता से हम किसी भाषा का वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन, अध्ययन और अनुशीलन करना सीखते हैं। भाषा विज्ञान में ही एक अन्य जगह वे इस तरह स्पष्ट करते हैं- “मनुष्य-मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और गति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता, उसे भाषा कहते हैं। ”
इस तरह उपरोक्त परिभाषाओं से भाषा का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है और पूर्णतः सिद्ध होता है कि भाषा मनुष्य के सामाजिक व्यवहार साधन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। अतः हम कह सकते हैं कि “भाषा-विज्ञान भाषा के अध्ययनार्थ एक गत्यात्मक विज्ञान है, जिसका विकासात्मक पल्लवन देश-काल के परिवेश में होता है। ”
भाषा – विज्ञान विज्ञान है या कला अथवा भाषा-विज्ञान, कला और विज्ञान दोनों है।
कुछ लोग कहते हैं कि भाषा विज्ञान है क्योंकि उसमें विशिष्ट ज्ञान का अध्ययन किया जाता है। विज्ञान का अर्थ ही है विशिष्ट या व्यवस्थित ज्ञान। अतः भाषा-विज्ञान, विज्ञान है क्योंकि इसमें विज्ञान की तरह ही निष्कर्ष ग्रहण के लिए वर्णन किया जाता है। इसमें स्थायी परिणामों या सिद्धांतों के संदर्भ में भौतिक एवं गणित की तरह परीक्षण भी संभव है। इसमें विज्ञान की तरह की उपचार पूर्णता, अतः संगति और लाघव इत्यादि भी होते हैं। अतः यह विज्ञान है।
कुछ अन्य विज्ञानों के अनुसार भाषा विज्ञान कला है क्योंकि इसमें सिद्धांत की अपेक्षा कल्पना को ही अधिक महत्व दिया जाता है, जिस प्रकार से दर्शनशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में। अतः यह विज्ञान नहीं बल्कि कला है। भाषा को हम सिद्धांत रूप में तब तक प्रतिष्ठित नहीं कर सकते हैं जब तक कि उसे कल्पना, अनुमान और तर्क से परिमण्डित नहीं किया जाय। दूसरी बात यह कि कला की भांति भाषा भी किसी क्षेत्र विशेष के अन्दर घिरी हुई नहीं है, जिस तरह विज्ञान का क्षेत्र होता है। अतः भाषा विज्ञान भी एक कला है। इस प्रकार विद्वानों के अपने-अपने विचार हैं। लेकिन कुछ अन्य लोग भी इस मत के हैं कि यह कला और विज्ञान दोनों है। क्योंकि इसमें कला की तरह कल्पना और विज्ञान की भाँति सिद्धांत दोनों ही समुपलब्ध होते हैं। भाषा समाज की सम्पत्ति है और कला मानवों द्वारा उद्धृत है। आधुनिक युग में अध्ययन के क्षेत्र को तीन वर्गों में बाँटा जाता है—
1. प्राकृतिक विज्ञान
2. सामाजिक विज्ञान समाजशास्त्र इत्यादि
3. मानविकी – चित्रकला और साहित्य-संगीत इत्यादि ।
इस प्रकार उपरोक्त आधारों के मुताबिक हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भाषा विज्ञान में दोनों का ही सामंजस्य एवं पूर्णता है। अतः भाषा-विज्ञान कला और विज्ञान दोनों का ही वास्तविक आकार धारण करने वाला एक सशक्त आधार स्तम्भ है।
भाषा के बिना मानव सभ्यता और संस्कृति की प्रगति की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वस्तुतः भाषा के सोपान पर ही मानव जाति की समस्त उपलब्धियाँ समाहित हैं।
Q. 2. भाषा के वैज्ञानिक स्वरूप पर प्रकाश डालें।
प्रत्येक भाषा का अपना स्वरूप होता है। जिस तरह हर संस्कृति व समाज का भाषा पर प्रभाव पड़ता है उसी तरह भाषा भी विकास व परिवर्तन के कालों से गुजरती रहती है। प्रत्येक भाषा की अपनी प्रकृति होती है, जिसके स्वभाव को जानने से शिक्षण कार्य में आसानी होती है। भाषा के संबंध में विचार व्यक्त करते हुए डॉ० बाबूराम सक्सेना का कथन है कि ‘जिन ध्वनि चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनियमय करता है, उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।” इस परिभाषा के आधार पर भाषा का निर्माण ध्वनियों से होता है। चाहे है। वह हिन्दी भाषा हो या अन्य कोई भाषा हो। ध्वनियों का अस्तित्व सभी में समाया हुआ सामान्य रूप से ध्वनि हवा तथा अन्य संबद्ध अणुओं में कंपन्न रूप में होती है लेकिन भाषा में प्रयुक्त ध्वनि वह लघुतम इकाई है जिसका उच्चारण और श्रोतव्यता की दृष्टि से स्वतंत्र व्यक्तित्व है। ध्वनि को ही वर्ण कहा जाता है। जैसे क्, च्, अ, उ आदि ध्वनियाँ हैं। एक भाषा में ध्वनि का उच्चारण, उच्चारण स्थलों का ज्ञान, ध्वनियों का वर्गीकरण आदि विषय वर्ण-विचार में विवेचित किया जाता है। ध्वनियों के संयोग से ऐसे ध्वनि-समूहों की रचना की जाती है, जिनका कोई अर्थ होता है और ऐसी सार्थक ध्वनि या ध्वनि-समूह को शब्द कहलाते हैं। भाषा का शब्द-भंडार, शब्दों की उत्पत्ति, विकास, निर्माण तथा शब्दार्थ का विश्लेषण शब्द-विचार के अंतर्गत किया जाता है। शब्दों से पदों का निर्माण एवं उनका वाक्य में प्रयोग, पद-निर्माण के विविध रूपों एवं नियमों आदि का अध्ययन पद-विचार में किया जाता है। भाषा को लिखने के लिए एक लिपि निर्धारित होती है। वह लिपि निर्धारित ध्वनियों का सार्थक समूह-शब्द के संयोग से लिखा वाक्य रूप नियमों के अंतर्गत धारण कर भाषा रूप में ढल जाती है। वही भाषा का वैज्ञानिक स्वरूप कहलाता है। शब्द-विचार, वर्ण-विचार और वाक्य-विचार की दृष्टि से हिन्दी भाषा वैज्ञानिक है।
1. शब्द-विचार की दृष्टि से भाषा का वैज्ञानिक स्वरूप : शब्द जब वाक्य में प्रयुक्त होता है तो वाक्य में उसके अन्य शब्दों के साथ संबंध स्थापित हो जाते हैं। उस स्थिति में शब्द को एक वैयाकरणिक रूप मिल जाता है और वह शब्द वाक्य निर्माण की दृष्टि से यथास्थान पर रखा जाता है। यदि उस शब्द को व्याकरण या वाक्य-रचना के नियम से दूसर स्थान पर रख दिया जाये तो उस शब्द का महत्व अपन आप में नगण्य हो जाता है। शब्द को ही पद कहा जाता है, क्योंकि वाक्य में वह विविध रूप धारण कर लेता है। शब्द व लिंग, वचन, कारक, पुरुष, काल के कारण बदल जाते हैं, उन्हें विकारी कहते हैं और जो लिंग, वचन, कारक, पुरुष, काल के कारण अपना रूप नहीं बदलते हैं, उन्हें अविकारी कहते हैं। इसके साथ ही भाषा अपना मूल रूप बनाये रखकर अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने आगोश में समेट कर उन शब्दों से समृद्ध और विकसित होती है तो वह वैज्ञानिक ही मानी जा सकती है। भाषा में मूल तत्सम शब्दों के अलावा तद्भव, देशज, विदेशज, संकर, अंत:करणात्मक शब्दों के ग्रहण द्वारा उसका विकास सामाजिक परिवर्तन के अनुरूप होता है जो एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इस दृष्टि से यदि हिन्दी भाषा को देखा जाये तो हिन्दी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज शब्दों का प्रयोग सामाजिक आवश्यकता के आधार पर सहज रूप में होता है। अतः हिन्दी भाषा का स्वरूप वैज्ञानिक है।
2. वर्ण-विचार की दृष्टि से भाषा का वैज्ञानिक रूप : ध्वनि, वर्ण और अक्षर भिन्न-भिन्न अवधारणाएँ हैं। हिन्दी भाषा या अन्य किसी भाषा में ध्वनियाँ अपने चिह्नित रूप में विद्यमान हैं। उन ध्वनियों या वर्णों का अपना अलग-अलग रूप है। उनका उच्चारण भी मुँह के अलग-अलग अवयवों के सहयोग से किया जाता है। निर्धारित ध्वनियों को स्वर और व्यंजन दो रूपों में देखा जाता है। भाषा को सीखने के लिए उसकी ध्वनियों तथा उनके लिपि चिह्नों को सरलता, शुद्धता से उच्चारित करना तथा उनका पढ़ना व लिखना आवश्यक होता है। यदि किसी भाषा की वर्णमाला सभी निर्धारित ध्वनियों को शुद्धता से प्रकट कर सकती है और उसकी लिपि सही ध्वनियों के लिखने में व उच्चारण में सहायक सिद्ध हो सकती है तो वह भाषा के वैज्ञानिक स्वरूप की दृष्टि से उचित मानी जायेगी।
3. वाक्य-विचार की दृष्टि से भाषा का वैज्ञानिक रूप : व्याकरणिक दृष्टि से भाषा की सबसे बड़ी रचना वाक्य है। वाक्य में अर्थवान् शब्दों को इस क्रम में रखा जाता है कि उससे पूरे विचार या भाव का ग्रहण हो जाता है। वाक्य -विचार में शब्दक्रम, उनका पारस्परिक संबंध, वाक्य के अंग, उनके भेद, वाक्य विश्लेषण आदि का विवेचन वाक्य नियमों के अंतर्गत होता है। यह भाषा का वैज्ञानिक रूप है। वाक्य में प्रयुक्त पद निश्चित लिपि में लिखे होने के कारण सरलता से पहचान लिये जाते हैं। हिन्दी भाषा की लिपि ‘देवनागरी’ है। इस लिपि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हिन्दी जिस रूप में जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। हिन्दी या अन्य भाषा की रचना संबंधी कुछ निर्धारित नियम होते हैं, उन्हीं नियमों के अंतर्गत भाषा की रचना और संचालन होता है, जो एक दृष्टि से भाषा की वैज्ञानिकता का द्योतक है।
इस संबंध में रमन बिहारीलाल का कथन है कि “प्रत्येक भाषा में रचना के कुछ नियम होते हैं। कुछ भाषायें तो ऐसी हैं जिनमें वाक्य-रचना के बड़े कठोर नियम है और कुछ भाषायें ऐसी हैं जिनमें वाक्य-रचना के पदक्रम में थोड़ा अंतर किया जा सकता है। हिन्दी दूसरे प्रकार की भाषा है। हिन्दी में वाक्य-रचना में पदों के क्रम एवं विभक्तियों के प्रयोग आदि के कोई कठोर नियम तो नहीं हैं लेकिन व्याकरण-सम्मत भाषा की वाक्य-रचना के कुछ सामान्य नियम हैं। ”
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि ‘वर्ण विचार’, ‘शब्द-विचार’, ‘वाक्य-विचार’ भाषा के वैज्ञानिक रूप हैं, क्योंकि इनकी संरचना, उच्चारण व लेखन निर्धारित नियमों के अंतर्गत ही होता है, अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दी भाषा एक वैज्ञानिक भाषा है।
Q. 3. भाषा के कार्यों का वर्णन करें।
भाषा के बिना मनुष्य पशु के समान है। भाषा के कारण ही मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राण है। भाषा का आविष्कार एवं विकास वस्तुतः मनुष्य का विकास है। मनुष्य के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में भाषा के कार्यों को निम्न प्रकार समझा जा सकता है-
1. अभिव्यक्ति (Expression) :
भाषा मनुष्यों के संवेगों, भावों और विचारों की अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन है। मनुष्य के मन में संवेग, भाव एवं विचार बाह्यजगत के साथ अंतःक्रिया करने पर अपने आप स्फुरित और व्यक्त होते रहते हैं। आत्माभिव्यक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्ति ही मनुष्य को भाषा सीखने के लिए उत्प्रेरित करती है। नवजात शिशु अपने मस्तिष्क में ध्वनि इकाइयों का संग्रह करता रहता है, जिनके सहारे वह नई शब्दावली सीखता और जोड़ता है। ये इकाइयां उच्चारण तथा अर्थ बोध संबंधी होती हैं, जो मस्तिष्क के स्नायु कोषों में अंकित हो जाती हैं। शारीरिक एवं मानसिक वृद्धि के साथ-साथ इन इकाइयों में भी निरंतर वृद्धि होती चली जाती है और बालक को अपने संवेगों, भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने की शक्ति प्राप्त होती है।
संवेगात्मक अभिव्यक्ति (Emotional Expression) :
संवेगात्मक अभिव्यक्ति का महत्व समझने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि संवेग क्या होते हैं और भाषा इनके विकास और नियंत्रण में कैसे सहायक होती है। सभी बालक जन्म से कुछ मूल्य प्रवृत्तियाँ लेकर आते हैं। इन्हीं प्रवृत्तियों के फलस्वरूप वे बाह्य परिस्थितियों की वस्तुओं के साथ एक निश्चित संवेग धारण कर लेते हैं। जैसे कोई चीज न मिलने पर रोना, चिल्लाना। इसी प्रकार, जब बालक आनन्द का अनुभव करता है तब वह अपने अनुभवों को किसी के साथ बांटना चाहता है।
बालक के व्यक्तित्व के विकास में सबसे अधिक बाधक है। पर इसी संवेग को भाषा में वीर रस की कविताओं के माध्यम से देश के शत्रुओं के प्रति क्रोध में परिवर्तित किया जा सकता है। बुराइयों को समाप्त करने में भी उसकी इस प्रवृत्ति को लगा सकते हैं। अध्यापक विविध पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा अपने संवेगों पर नियंत्रण पाने में बालक की सहायता कर सकता है। विविध बाल प्रतियोगिताओं के द्वारा ईर्ष्या को स्पर्धा में परिवर्तित किया जा सकता है। शिक्षार्थियों को विविध परियोजनाओं में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करके भी आप उचित दिशा में उनका संवेगात्मक विकास कर सकते हैं। शिक्षार्थियों को ऐसे वीरों की कहानियाँ भी सुनायी जा सकती हैं, जिन्होंने संवेगों पर नियंत्रण प्राप्त करके यश प्राप्त किया।
संवेगों पर नियंत्रण पाने के लिए ‘रेचन’ नाम की प्रविधि सबसे सफल मानी गयी है। रेचन का तात्पर्य यह है कि बच्चों को ऐसे अवसर प्रदान किये जायें कि वे अपने संवेगों की अभिव्यक्ति कर सकें। यही कल्पना के पंख लगाकर कहानियों का रूप धारण कर लेते हैं। इसी प्रकार संवेगों को भाषा द्वारा एक खास दिशा दिखाई जा सकती है। जब बालक को स्वस्थ संवेगात्मक अनुभूति होती है तभी ऐसे भावों का जन्म होता है, जो साहित्य, कला, संगीत आदि विषयों में रचनात्मक कार्य का आधार बनते हैं। अतः बालक के विकास में संवेगों का विशेष महत्व होता है और संवेगों की उचित अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से ही संभव है।
अभिव्यक्ति (Ideological Expression) :
पशु मूलप्रवृत्यात्मक प्रेरणा से, बिना परिणाम सोचे काम करते हैं, परन्तु मनुष्य कार्य का परिणाम सोचकर कार्य करता है। मनुष्य के लिए उसकी चिंतन शक्ति बड़ी महत्वपूर्ण है। इसी शक्ति से वह अपने को वातावरण के अनुकूल व्यवस्थित करता है। बालक को श्रेष्ठ बनाने के लिए हमें उसकी वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए अवसर प्रदान करने चाहिए।
चिंतन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है, जिसमें पुराने अनुभवों के आधार पर सूक्ष्मतम विश्लेषण करते हुए भविष्य की चिंता की जाती हैं और किसी निश्चय पर पहुँचा जाता है। इस क्रिया को प्रत्ययात्मक चिंतन कहते हैं। प्रत्ययों का निर्माण संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण के आधार पर होता है। बच्चा घोड़े को देखकर अनुकरण में घोड़ा कहता है, पर अभी यह घोड़े और गधे में अंतर नहीं कर सकता। प्रत्यय ज्ञान के बाद बच्चा पदार्थ के गुणों का विश्लेषण करने लगता है। इसे प्रत्यय ज्ञान की दूसरी सीढ़ी माना गया है। पूर्णतः विश्लेषण करने के बाद बच्चा घोड़े के विषय में अपने ज्ञान का संश्लेषण करता है। विविध रंगों के होने के बाद सभी घोड़ों में एक समानता है। वे सभी एक से आकार के होते हैं। प्रायः एक जैसी सवारी का काम उनसे लिया जाता है, इसके बाद वह घोड़े, गधे, ऊँट आदि में अंतर समझने लगता है और उसका वर्गीकरण करने लगता है।
प्रत्यय ज्ञान की अंतिम सीढ़ी है नामकरण, जब वह देखता है कि कुछ विशिष्ट गुणों के कारण एक पशु घोड़ा कहा जाता है, दूसरा बैल, तीसरा ऊँट आदि। इस प्रकार पशु विशेष का नाम लेने पर उसके न होने पर भी बालक उसका बोध भली प्रकार कर सकता है। इसलिए इस अवस्था में बालक को विभिन्न वस्तुओं को दिखाकर भाषा ज्ञान विकसित करना चाहिये। मांटेसरी विधि में भाषा शिक्षण के लिए इस प्रविधि का भरपूर उपयोग किया जाता है। तीन से चार वर्ष की आयु में बालक सरल वाक्यों का प्रयोग करने लगता है। वह देश और काल से भी परिचित होने लगता है। चार वर्ष की आयु के पश्चात बच्चा केवल घटनाओं का दर्शक ही नहीं बना रहता, बल्कि वह उनका कारण भी जानना चाहता है। वह लंबे वाक्य बोलने लगता है, वह बड़े शब्दों को गढ़ना भी शुरू कर देता, जैसे दूधवाला, सब्जीवाला इत्यादि ।
बालक धीरे-धीरे बहुत से शब्दों को समझने लगता है परन्तु उनका प्रयोग नहीं कर पाता। इसके लिए पर्याप्त अभ्यास की आवश्यकता होती है। बलक के मानसिक विकास का उसके भाषा विकास के साथ बहुत गहरा संबंध है। भाषा के अच्छे ज्ञान से वह अन्य विषयों का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। कहानियाँ सुनाकर, चित्र दिखाकर उनका वर्णन करवाना, साधारण परन्तु उपयोगी वस्तुओं का वर्णन करने का अवसर प्रदान करना, शुद्ध उच्चारण सुनवाना तथा परस्पर बातचीत के अवसर सुलभ करवाना आदि गतिविधियों से बच्चों का मानसिक विकास होता है और वैचारिक अभिव्यक्ति भी सशक्त होती चली जाती है। बालक को मूर्त से अमूर्त का ज्ञान और निर्णय करने की क्षमता भाषा शिक्षण द्वारा ही संभव है।
2. सामाजिक अंतःक्रिया (Social Interaction) : भाषा हमारी संस्कृति का अंग होती है। नि:संदेह भाषा और संस्कृति में प्रगाढ़ संबंध है। भाषा को एक सांस्कृतिक तत्व कहा जाता है, परन्तु भाषा संस्कृति का तत्व मात्र ही नहीं, बल्कि समस्त सांस्कृतिक क्रियाकलापों का आधार है और इस कारण किसी भी समाज की विशेषताओं के अध्ययन के लिए उस समाज की भाषा का अध्ययन आवश्यक है।
लियोनार्ड ब्लूमफील्ड के शब्दों में, “भाषा की क्रिया ही प्रत्येक समुदाय के निर्माण का आधार है। भाषा सामाजिक क्रियाकलापों को समझने में सर्वाधिक प्रत्यक्ष अंतदृष्टि प्रदान करती है और उनको संपन्न कराने में महत्वपूर्ण योग भी देती है। किसी भी मानव समुदाय को भलीभांति परखने के लिए हमें उसकी भाषा को समझना चाहिए। यदि हम किसी समुदाय की जीवन पद्धति और उसके ऐतिहासिक उद्गम का गहराई से अययन करना चाहते हैं तो हमें उसकी भाषा का व्यवस्थित विवरण प्राप्त करना होगा।”
3. सामाजिक और वैचारिक नियमन (Social and ideological regulations) :
भाषा का कार्य केवल विचारों का आदान-प्रदान ही नहीं है, बल्कि भाषा सामाजिक एवं वैचारिक विनियमन का एक साधन है। हम भाषा का प्रयोग दूसरों के व्यवहार को नियंत्रित करने अथवा प्रभावित करने के लिए भी करते हैं। बर्नस्टीन व उसके साथियों ने बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया के संबंध में माता-पिता के विभिन्न प्रकार के नियामक व्यवहार का अध्ययन किया है और उन्होंने बड़े रोचक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उसका एक उदाहरण है कि यदि कोई माता यह देखती है कि उसके बच्चे ने किसी दुकान से चुपके से कोई चीज उठा ली है तो वह भाषा की शक्ति का विभिन्न रूपों में उपयोग कर सकती है और बच्चे के मन में उनमें से प्रत्येक का भाषा की शक्ति के बारे मे अलग-अलग प्रभाव होगा।
उदाहरणतः वह कह सकती है—“तुम्हें उस चीज को नहीं उठाना चाहिए जो तुम्हारी नहीं है।” (वस्तुओं के स्वामित्व के आधार पर निषेध के माध्यम से नियमन) “यह उचित नहीं है” (नैतिकता के बोध द्वारा नियमन)। इस प्रकार की अकेली घटना अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं है, किन्तु पुनरावृत्ति प्रबलन के माध्यम से नियामक व्यवहार के ये रूप बच्चे को व्यवहार नियंत्रक के रूप में भाषा की भूमिका का बोध कराते हैं। आगे चलकर बच्चा भी भाषा की इस भूमिका के बोध के प्रयोग अपने सम समूह और भाई-बहनों के व्यवहार का नियमन करने में करता है।
के नियामक प्रकार्य से ही जुड़ा भाषा का एक अन्य प्रकार्य है— उसका सामाजिक अंतःक्रियात्मक प्रकार्य। इससे आशय है कि स्वयं तथा दूसरों के बीच अंतःक्रिया में भाषा का प्रयोग। व्यक्ति का समस्त सामाजिक संपर्क, भाषा के माध्यम से ही होता। भाषा के द्वारा ही वह समाज से संबंध स्थापित करता है, अपने सुख-दुख, हर्ष-उल्लास में दूसरों को भागीदार बनाता है और दूसरों के सुख-दुख, हर्ष-उल्लास में अपनी भावनाओं को मूर्त रूप देता है।
की दृष्टि से भाषा के दो रूप हैं—उच्चरित रूप, लिखित रूप। लिखित रूप में भाषा का जो व्यवहार होता है, उसके भी दो पक्ष हैं—ग्रहण और अभिव्यक्ति अर्थात् पढ़ना और लिखना। भाषा एवं साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने की दृष्टि से लिखित भाषा का महत्व है। सामाजिक संबंध बनाये रखने के लिए औपचारिक पत्र-व्यवहारों की आवश्यकता पड़ती है। वाणिज्य एवं व्यावसायिक कार्यों की संपन्नता के लिए भी हम पत्र-व्यवहार पर ही निर्भर करते हैं। सभी सम्मेलनों, समितियों, आयोगों आदि के प्रतिवेदन लिखित रूप में ही प्रस्तुत किये जाते हैं। किसी भी कार्य के विवरण को स्थायी रखने के लिए हमें लिखित रूप का सहारा लेना पड़ता है। राष्ट्र का संविधान लिखित रूप में ही है। राष्ट्र के समस्त संसदीय, शासकीय न्यायिक, सैनिक आदि सभी कार्यों का संवहन लिखित संदेशों के द्वारा ही होता है। लिखित रूप को ही प्रामाणिक माना जाता है।
4.सृजनात्मकता (Creativity) :
व्यक्ति में सृजनात्मकता के तत्व निहित होते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सृजनात्मकता के साथ उच्चकोटि की बौद्धिक क्षमता आवश्यक नहीं है। कोई भी सामान्य बुद्धि का व्यक्ति किसी विशिष्ट क्षेत्र में सृजनात्मकता दिखा सकता है। जो बालक प्रदत्त परिस्थिति के आधार पर कुछ आगे की ओर चिंतन करता है वह अपने कार्य तथा कार्य शैली में सृजनात्मकता दिखाता है।
सृजनात्मकता की योग्यता वाले बच्चे अपने विचारों से दूसरों को सरलता से प्रभावित कर लेते हैं। अतः प्रत्येक बच्चे की सृजनात्मकता के विकास हेतु समुचित अवसर मिलना चाहिए। इस अवसर के मिलने पर वे बहुत-सी असफलताओं और कुण्ठाओं को सरलता से भूलकर मौलिकता की परिधि को विस्तृत कर सकते हैं। मानव जाति का इतिहास इस बात का साक्षी है कि अनेक व्यक्ति अपनी कुण्ठाओं से ऊपर उठकर साहित्य, कला, विज्ञान, चित्रकला तथा संगीत आदि क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान कर पाये हैं। यदि कोई बालक किसी एक क्षेत्र में असफल होता है तो उसे दूसरे क्षेत्र में अपनी रचनाओं में सृजनात्मकता दिखाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
सृजनात्मक लेखन से अभिप्राय बच्चे में चिंतन शक्ति और सृजनात्मक कल्पना का कवि बनाना नहीं है। भाषा शिक्षण में सृजनात्मक लेखन से अभिप्राय बच्चे में चिंतन शक्ति और सृजनात्मक कल्पना का विकास और उसके संवेगों और भावों को एक स्वस्थ समाजोपयोगी दिशा में परिवर्तित करके आत्म संतोष और गौरव की अनुभूति कराना है।
Q. 4. हिन्दी की व्यापकता पर प्रकाश डालें।
अथवा,
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की स्थिति पर एक टिप्पणी लिखें।
Ans :
भारत के 18 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है जबकि 30 करोड़ लोग ऐसे हैं जो हिन्दी का इस्तेमाल द्वितीय भाषा के तौर पर करते हैं। यानी करीब 48 करोड़ लोग देश में सीधे तौर पर हिन्दी समझते-बोलते हैं। यही नहीं दुनिया के करीब 150 देश ऐसे हैं जहाँ हिन्दी भाषी लोग रहते हैं। एक अनुमान के मुताबिक साल 2050 तक दुनिया की सबसे शक्तिशाली भाषाओं में से एक होगी हिन्दी ।
शैक्षिक स्तर पर हिन्दी भाषा के अध्ययन-अध्ययन की स्थिति भी इतनी ही संतोषपद । भारत के बाहर लगभग 160 विश्वविद्यालयों या संस्थाओं में हिन्दी भाषा के अध्ययन की व्यवस्था है। दक्षिण अमेरिका में क्यूबा के हवाना विश्वविद्यालय और मंगोलिया के उलन बात्र ब्ला विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ायी जाती है। रूस, चीन आदि में हिन्दी अध्ययन की ओर प्रवृत्ति है। इंगलैंड, फ्रांस आदि में हिन्दी से संबंध शोध-कार्य हो रहे हैं।
क्या यह प्रच्छन्न स्वीकृति नहीं है कि भारत को समझने के लिए उसकी प्रमुख भाषा हिन्दी को समझना आवश्यक है। वे अन्य देश अक्सर मानते हैं कि हिन्दी के माध्यम से इस देश से सांस्कृतिक संबंध जोड़े जा सकते हैं। इसी प्रकार मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम तथा अन्य देशों के प्रवासी भारतीय भी अपनी मूल संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए इस भाषा को सुरक्षित रखना चाहते हैं।
कई भारतीयों के मन में यह प्रश्न उठता है कि हिन्दी विश्व की प्रमुख भाषाओं में एक है और इसके बोलने वालों की बड़ी संख्या है, फिर भी यह अभी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा क्यों नहीं बन पायी है। उत्तर देने से पहले हम कुछ जुड़े हुए सवालों पर भी दृष्टि डालना चाहेंगे, कुछ विषम स्थितियों की वार्ता करना चाहेंगे। मॉरिशस आदि देशों में जहां बहुसंख्यक प्रवासी भारतीय हैं, उच्च शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं है, इसलिए उच्च स्तर पर हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की भी व्यवस्था नहीं हैं, किन्तु वहां हिन्दी साहित्य की कई विधाओं की रचनाएं प्रकाशित हो रही हैं।
जहां तक अमेरिका, कनाडा आदि उन्नत देशों का सवाल है, तकनीकी विकास और संचार साधनों की उपलब्धि के कारण वहां के हिन्दी के कार्यकर्ता अधिक सक्रिय हैं, अधिक अच्छे कार्यक्रम प्रस्तुत कर पाते हैं। लंदन के रेडियो पर फोन के जरिये श्रोताओं से जो प्रश्नोत्तर कार्यक्रम प्रस्तुत होता है, वह तो भारत में भी नहीं है। अमेरिका के टेलिविजन पर भारतीयों के लिए पेश किये जाने वाले कार्यक्रमों का स्तर देखकर विस्मय होता है।
सवाल है, दोनों प्रकार के देशों के प्रवासी भारतीय के सांस्कृतिक अस्मिता को सुरक्षित रखने का, हिन्दी की सृजानात्मक प्रतिभा को गति देने और इसके विकास को दिशा देने का, विचार और चिंतन को भाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने का। स्थिति अनुकूल है, कार्यान्वयन की आवश्यकता है। अगर इन देशों में भी हिन्दी एक आधुनिक भाषा के रूप में विकसित हो, तो संयुक्त राष्ट्र संघ में उसके प्रवेश में विलंब नहीं होगा।
Q.6. साहित्य की रचनाओं के उपयोग से व्याकरणिक तत्वों का संदर्भगत शिक्षण किस प्रकार करेंगे उदाहरण के साथ समझाएं।
अथवा,
साहित्यिक रचनाओं का शिक्षण व्याकरण के तत्वों का संदर्भगत शिक्षा देने में सहायता करती है। कैसे? चर्चा करें।
Ans.
किसी भी विषय वस्तु के अध्ययन हेतु विषय सामग्री का चयन कर पाना स्वयं में अति महत्वपूर्ण कार्य होता है। विषय सामग्री का समुचित चयन छात्रों के ज्ञान और अधिगम को विकसित करता है। ठीक इसी प्रकार हिंदी भाषा शिक्षण में साहित्य की रचनाओं का चयन न सिर्फ मनोरंजन के उद्देश्य की पूर्ति करता है बल्कि सामाजिक, नैतिक, चारित्रिक विकास के साथ-साथ भाषा के व्याकरणिक तत्वों का संदर्भगत विकास भी करता है। व्याकरण के तत्वों का संदर्भगत शिक्षण देने में साहित्य की पुस्तकें किस प्रकार सहायक सिद्ध होती है। हम निम्नांकित बिंदुओं के ऊपर विवेचना करते हुए समझ सकते हैं।
1.मात्राओं का सटीक प्रयोग—
बच्चे ही नहीं बल्कि बड़ों को भी साहित्य की पुस्तक के अध्ययन से जोड़े रखती है। विशेषकर बच्चे तो मनोरंजन के उद्देश्य साहित्य की रचनाओं की ओर अधिक खींचे रहते हैं। इनके नियमित अध्ययन से बच्चों में मात्राओं की सही जानकारी प्राप्त होती है। इन मात्राओं के समुचित उपयोग सीख जाने से उनकी भाषा काफी समृद्ध हो जाती है।
2.विराम चिह्नों की सही जानकारी—
साहित्य की रचनाओं के उपयोग से बच्चों में विराम चिह्नों की सही जानकारी मिलने लगती है वह अपने लेखन एवं पठन में इनको सही प्रयोग में लाते हैं इस प्रकार उनकी भाषा शुद्ध सही और परिष्कृत होती चली जाती है। यही स्थिति आगे जाकर उनकी भाषायी की क्षमता के कौशलों में दक्षता प्रदान करती है।
3.शब्द-भंडारण-
साहित्य की रचनाओं के लगातार अध्ययन से लेखन और पाठन के साथ-साथ बच्चों में शब्द भंडारण भी काफी तेजी से बढ़ता है। वे नित्य नए-नए शब्दों के साथ स्वयं का परिचय पाते हैं और उनके अर्थ, संरचना एवं प्रयोग को भी जान पाते हैं।
4. वर्तनी की शुद्धता-
बच्चे जब साहित्य की रचनाओं को रुचि और आनंद के साथ पूरी तन्मयता से अध्ययन करते हैं, तब उनमें वर्तनी की शुद्धता काफी उत्कृष्ट और परिमार्जित होने लगती है। इससे अनेक लेखन में भाषागत अशुद्धियों के होने की संभावना शून्य होने लगती है और वे प्रभावी लेखन लिखने के लायक हो जाते हैं।
5. मानक लिपि से परिचय लिपि के मानक स्वरूप में नहीं हो पाने के कारण बच्चों का लेखन व्याकरणिक तौर पर अशुद्ध हो जाता है। इस समस्या का सरल, सहज और सशक्त समाधान है, बच्चों के बीच साहित्य की पुस्तकों का समुचित अध्ययन। बच्चें पुस्तकों के अध्यापन करते समय स्वयं जाँच लेते हैं कि किस वर्ण का मानक स्वरूप कैसा है। अतः हम यह कह सकते हैं कि साहित्यिक पुस्तकों का अध्ययन मानक लिपि की अच्छी समझ प्रदान कर पाने में काफी प्रभावी तथा सहायक होती है।
. भाषायी कुशलताओं का विकास भाषा के चारों आधारभूत कौशलों का विकास भी साहित्य की रचनाओं के सतत् अध्ययन से संभव है। बच्चे कविता कहानी चित्रकथा, गीत आदि का श्रवण, वाचन, पठन और लेखन बड़ी रुचि के साथ करना पसंद करते हैं। इनको उचित मार्गदर्शन देकर शिक्षक इनकी भाषायी कुशलताओं को विकसित कर सकता है।
7. व्याकरणिक नियमों की जानकारी-साहित्य की रचनाओं के सफल और ध्यान पूर्वक अध्ययन से बच्चों में व्याकरण के नियमों की जानकारी आसानी से हो जाती है। बच्चों में संधि के नियम उपसर्ग की जानकारी आसानी से हो जाती है। बच्चों में संधि के नियम उपसर्ग, प्रत्यय, रचना, लिंग, वचन, कारक, चिह्न विभक्ति, समास आदि के नियमों के गुण स्वतंत्र अध्ययन से ही आने शुरू हो जाते हैं।
इस प्रकार हम ऐसा कह सकते हैं कि साहित्यिक रचनाओं का उपयोग बच्चों में व्याकरण की पारंगतता लाने में सहायता करती है। यह बच्चों को शुद्ध और मानक भाषा का प्रयोग, अशुद्ध भाषा की जाँच कर पाने, अपनी अभिव्यक्ति में शुद्धता लाने, लेखन में व्यवस्थापूर्ण रचना कर पाने, भाषा विश्लेषण की योग्यता प्राप्त करने, मानसिक अनुशासन को बनाए रखने आदि में काफी प्रभावी और सहायक है।
Q. 7. साहित्य की विभिन्न विधाओं का भाषा शिक्षण में उपयोग करने के क्या उद्देश्य हैं?
Ans.
कहानी शिक्षण के उद्देश्य:
2. कहानी में निहित भावों, विचारों, नैतिक मूल्यों को ग्रहण करने की क्षमता. विकसित करना।
3. सृजनात्मक शक्ति का विकास करना।
4.शब्द, सूक्ति, मुहावरे आदि के भंडार को समृद्ध करना।
5. अंदाजा लगाने की क्षमता का विकास करना।
6. एकाग्रता को विकसित करना।
7. कहानी की रचनाशीलता का विकास करना।
8. कल्पना और स्मरण शक्ति का विकास करना।गद्य की अन्य विधाओं के शिक्षण के उद्देश्य-1. साहित्य के प्रति रुचि विकसित करना।
2. विधा की रचनाशीलता तथा एकाग्र होकर पाठ को आत्मसात करने की क्षमता का विकास करना ।
3. मंच पर अभिनय करने की क्षमता एवं अवसरानुकूल शब्दावली का प्रयोग करने की क्षमता का विकास करना ।
4. ऐतिहासिक कथाओं, पौराणिक विचारों एवं सामाजिक कुरीतियों से परिचित कराना।
5. उचित यति-गति, हाव-भाव, आरोह-अवरोह तथा उतार-चढ़ाव के साथ उच्चारण की क्षमता विकसित करना।
6. निरीक्षण, कल्पना, बोध एवं विवेचन के गुण विकसित करना।
7. शब्द, सूक्ति, मुहावरे आदि के भंडार को समीक्षा करना।
8. अंदाजा लगाने की क्षमता का विकास करना।
9. कल्पना और स्मरण शक्ति का विकास करना।
कविता (पद्य) शिक्षण के उद्देश्य-
1. कविता की पढ़ाई के
2. भावों, विचारों, नैतिक करना। दौरान सस्वर पठन की कुशलता विकसित करना। मूल्यों को ग्रहण करने तथा सृजनात्मक शक्ति का विकास
3. कविता पढ़ने के बाद उसकी समीक्षा करने की योग्यता का निर्माण ।
4. कविता को उचित यति-गति, आरोह-अवरोह के साथ गाना।
5. कल्पना शक्ति विकसित करना।
6. पठित अथवा उच्चरित कविता के अर्थ, भाव एवं कल्पना को साथ-साथ ग्रहण करने और उनकी व्याख्या करने की योग्यता विकसित करना।
7. कविता रचने की आदत विकसित करना।
Q. 8. साहित्य की समझ (शब्द शक्ति एवं अन्य साहित्यिक तत्वों) का उपयोग विद्यार्थियों की भाषाई क्षमताओं को विकसित करने हेतु किस प्रकार करेंगे?
साहित्य की समझ छात्रों की भाषायी क्षमताओं को विकसित करने हेतु निम्न प्रकार से मदद करता है-
1. छात्र जैसे-जैसे कहानी को आगे पढ़ते और सुनते हैं वे पीछे की घटनाओं को भी याद रखते चलते हैं। यदि ऐसा ना हो तो आगे की कहानी और उसकी अपनी कहानी आगे नहीं बढ़ पाएगी। इस प्रकार यह छात्रों में स्मरण शक्ति का विकास करने में सहायक है।
8. पढ़ना स्वयं में एक आनंददायी ही अनुभव है यह घंटों छात्रों को एक सार्थक गतिविधि में रमाए रखता है।
उपरोक्त बिंदुओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य की समझ का उपयोग ना केवल विद्यार्थियों की भाषायी क्षमता को विकसित करती है वरन् उनमें सामाजिक, नैतिक, चारित्रिक, धार्मिक गुणों से भी परिपूर्ण कर एक आदर्श और सफल नागरिक निर्माण हेतु दिशा प्रदान कराती है। यह छात्रों में कल्पनाशीलता, रचनात्मकता, सृजनात्मक चिंतन के साथ-साथ स्वस्थ एवं सार्थक मनोरंजन का भी विकास कराती है।
Q.9. साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे कहानी कविता आदि का उपयोग कर विद्यार्थियों की भाषायी क्षमताओं का विकास किस प्रकार करेंगे?
उत्तर—
भाषा शिक्षण में छात्रों की भाषा की कुशलताओं और क्षमताओं को विकसित करने में साहित्य की दोनों विधाओं कहानी और कविता का अपना विशेष स्थान है। प्रायः यह देखा जाता है कि भाषा की पाठ्य पुस्तकों में अधिकांश पाठ कहानी और कविता के रूप में ही prstut रहते हैं।
कहानी—
कहानी जीवन के सत्य को उजागर करती है जीवन के किसी पक्ष क की विवेचना करती है। कहानी की सहायता से कहानीकार लक्ष्य की ओर बढ़ता है। कहानी में कसावट कम गुण होना चाहिए। कहानियों को पढ़ना और सुनना स्वयं में एक बड़ा ही आनंदपूर्ण अनुभव होता है। कहानी के आरंभ होते ही बच्चों का ध्यान एवं आकर्षण दोनों कहानी के नुक्से तक खिंचे चले आते हैं क्योंकि बच्चे खुद को कहानी में देखते हैं। कहानी में होने वाली घटनाओं से उनके आकर्षण को बल मिलता है।
जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे छात्रों की कल्पना चिंतन और जिज्ञासा भी बढ़ती चली जाती है। कहानी के कारण छात्रों में श्रवण, वचन और पठन जैसी आधारभूत भाषायी कौशलों का विस्तार होता है। छात्रों की वैचारिक सृजनशीलता की सीमा बढ़ती है। मात्राओं का सटीक प्रयोग विराम चिह्न की सही जानकारी शब्द भंडारण में वृद्धि, उच्चारण और वर्तनी की शुद्धता मानक लिपि में निर्धारित वर्णों के स्वरूप की पहचान, शब्दों तथा वाक्य के निर्माण में संरचनात्मक तारतम्यता आदि गुणों का विकास कहानी शिक्षण की मदद से सरलता और सहजता के साथ प्रदान की जा सकती है। भाषिक गुणों में कुशलताओं की प्राप्ति के साथ-साथ छात्रों को नैतिक, चारित्रिक और वैचारिक गुणों को भरने के लिए भी कहानी एक सशक्त और प्रभावी साधन होती है। पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ इसका जीवंत उदाहरण है।
कविता-
कविता मन के भावों की स्वच्छंद श्रृंखला है। कविता में भाव कल्पना और बुद्धि तीनों का समावेश्न होता है। कविता द्वारा मानवीय सुख-दुख को अत्यंत सहज भाव से अभिव्यक्त किया जाता है। इसका अध्यापन सुर, लय एवं ताल के अनुरूप किया जाता है। इसके अध्यापन से छात्रों में उनकी आत्मिक और हार्दिक भावों को व्यक्त कर पाने की क्षमता का विकास होता है।
कविता के माध्यम से छात्रों में शब्द और स्पष्ट उच्चारण की क्षमता का विकास होता है। उचित भात्रानुकूल चेहरे की मनोदशा को विभिन्न मुद्राओं द्वारा व्यक्त कर पाने का गुण विकसित होता है। कल्पना शक्ति का सम्यक विकास होने के कारण छात्रों में सृजनात्मक और रचनात्मक गुणों का विकास हो पाता है। काव्य-सौंदर्य के विभिन्न पक्षों को स्वयं जाँच पाने की क्षमता बढ़ती है। कविता शिक्षण के कारण छात्रों में समुचित ध्वनि अनुतान, बलाघात, आरोह-अवरोह की समझ प्राप्त होती है यह छात्रों में राष्ट्रप्रेम, दया, सद्भाव, सहानुभूति, चरित्र निर्माण, विश्व बंधुत्व आदि की भावना भरने का भी कार्य करती है। यह भाव के अनुरूप स्वर, लय, ताल, गति आदि के समावेशन का अद्भुत दया, चरित्र निर्माण, विश्व बंधुत्व आदि की भावना भरने का भी कार्य करती है। यह भाव के अनुरूप स्वर, लय, ताल, गति, यति के समावेशन का अद्भुत एवं प्रभावी संयोजन होती है।
Q.10. साहित्य का उपयोग कर बच्चों में कल्पना करने, समझ, चिंतन करने अथवा व्यक्त करने हेतु स्थितियों की रचना के लिए रणनीतियों की चर्चा करें।
Ans.
1. बच्चों से किसी आँखों देखी घटना का वर्णन करने के लिए कहना या उनसे उनकी दिनचर्या के विषय में पूछना बातचीत जितनी अनौपचारिक होगी बच्चे इतने सहज और निःसंकोच भाव से अपनी अभिव्यक्ति को प्रस्तुत कर पाएंगे।
Q.11. हिंदी शिक्षण के विभिन्न उपागम-व्यवहारवादी रचनात्मकता तथा आलोचनात्मक उपागम की समझ विकसित करें।
Ans.
1. व्यवहारवादी उपागम-
2. रचनात्मक उपागम—
3. आलोचनात्मक उपागम—
आलोचनात्मक उपागम का स्रोत पूरी तरह आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र है। यह शिक्षण शास्त्र मानता है कि शिक्षा की पूरी प्रक्रिया राजनीतिक होती है, अतः शिक्षा में शिक्षण के तरीके को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि पढ़ने के तरीके ऐसे हो कि जिन से छात्रों का ध्यान समाज में फैली हुई विषमताओं, अंधविश्वासों, अन्याय, मिथकों में अंतर्निहित शक्ति समीकरणों की ओर टिके और वे इन से टकराने के आवश्यक समझ और साहस का विकास कर सके। अतः इस उपागम में सामाजिक घटनाओं तथा तथ्यों पर आलोचनात्मक उपागम को शिक्षण प्रक्रिया के केंद्र में रखा जाता है। आलोचनात्मक उपागम संवाद को शिक्षण प्रक्रिया की दूरी मानता है। यहाँ संवाद का अर्थ सामान्य बातचीत से नहीं है बल्कि संवाद का अर्थ कहीं जा रही बातों में विद्यमान माताओं को सामने लाना और उनमें निहित शक्ति समीकरणों को उजागर करना। उजागर करने के बाद उनके समतामूलक मनाने के बेहतर विकल्प प्रस्तुत करना है। आलोचनात्मक उपागम का मुख्य उद्देश्य शिक्षा को मुक्तिदायी बनाना है, जिसे एक आदर्श समाज और लोक कलयाणकारी राष्ट्र का निर्माण हो सके।
Q.12. विद्यार्थियों की कल्पनाशीलता, चिंतन क्षमता, वर्णन करने की क्षमता आदि का मूल्यांकन करने के पैमानों और तरीकों का उल्लेख करें।
Ans.
विद्यार्थियों की कल्पनाशीलता, चिंतन क्षमता, वर्णन करने की क्षमता आदि का मूल्यांकन करने के पैमाने- यह आकलन करना कि छात्र-
7. चीजों के व्यर्थ इस्तेमाल को रोकती/रोकता है।
हिंदी भाषा शिक्षण के अनेक देशों में से एक उद्देश्य है- बच्चों की कल्पनाशीलता, चिंतन क्षमता, वर्णन करने की क्षमता, आदि का विकास करना। जब हम पढ़ते हैं तो पढ़ी गयी सामग्री के बारे में चिंतन करते हैं कि क्या कहने का प्रयास किया गया है, क्या उचित है अथवा नहीं। उसी प्रकार जब हम लिखते हैं तो यह सोचते हैं कि क्या लिखना है, क्या नहीं एंव किस तरह सटीक भाषा का प्रयोग करना है। इस प्रकार अन्य विषयों की तरह हिंदी भाषा में भी चिंतन क्षमता का एक महत्वपूर्ण स्थान है। कल्पना करके एवं चिंतन कर के ही बच्चे एक प्रभावी तथा बेहतर लेखक एवं वक्ता बनते हैं। हिंदी भाषा शिक्षण में कल्पनाशीलता का विकास एक मुख्य उद्देश्य है जो बच्चों में भाषायी सृजनशीलता पर बल देता है। कल्पना और चिंतन बच्चों को एक बेहतर तथा प्रभावी वक्ता एवं लेखक बनने में मदद करते हैं। हम अनेक तरीकों से उनकी इन क्षमताओं का आकलन कर सकते हैं। जैसे-
1. बच्चों से किसी आँखों देखी घटना का वर्णन करने के लिए कहना या उनसे उनकी दिनचर्या के बारे में पूछना। बातचीत जितनी अनौपचारिक होगी, बच्चे उतना ही निःसंकोच रूप से अपनी बात कहेंगे तथा वर्णन करेंगे।