संवेगात्मक विकास अर्थ , परिभाषा ,प्रकार , विशेषता , प्रभावित करने वाले कारक
प्रश्न – संवेगात्मक विकास अर्थ , परिभाषा ,प्रकार , विशेषता , प्रभावित करने वाले कारक का वर्णन करे ?
Question -Sanvegatmk Vikas Arth , Pribhasha , Prkar , visheshta , Prbhavit Krnevale kark
QUESTION -Emotional Development Meaning Deffenition Characteristics Factors Affecting
उत्तर –
(1)- प्रस्तावना
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में समय-समय पर क्रोध, भय, हर्ष, घृणा, प्रेम, वासना क्षोभ आदि का अनुभव करता है. इन्हें संवेग कहते हैं। मानव जीवन में संवेगो अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य को संवेगों के द्वारा विभिन्न कार्यों को करने की प्रेरणा तथा शाक्ति मिलती है। संवेगों के उदय होने पर व्यक्ति में अतिरिक्त शक्ति का संचार होता है तथा वह ऐसे-ऐसे कार्य कर दिखाता है जो सामान्य स्थिति में उसके लिए सम्भव प्रतीत नहीं होते हैं । भय की स्थिति में व्यक्ति कभी-कभी ऊँचे-नीचे गड्ढों तथा नालों को लाँघ जाता है। क्रोध की स्थिति में कभी-कभी व्यक्ति अपने से शक्तिशाली व्यक्ति को परास्त कर देता है। संवेगों का सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन के भावात्मक पक्ष से होता है। सुखद वस्तु को देखकर प्रसन्न होना, डरावनी वस्तु को देखकर डर जाना, इच्छा के विपरीत कार्य होने पर क्रोधित होना, खराब वस्तु को देखकर घृणा आना तथा दूसरों को अभावग्रस्त देखकर दया आना आदि संवेगात्मक स्थिति के कुछ उदाहरण है। संवेगों के उत्पन्न होने पर व्यक्ति की मानसिक तथा शारीरिक स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। संवेग वास्तव में मानसिक उपद्रव (Mental Disturbance) की अवस्था होती है, जिसमें व्यक्ति सामान्य स्थिति में नहीं रहता है। संवेगात्मक स्थिति में वुद्धि व विवेक का व्यक्ति के व्यवहार पर अंकुश नहीं रह जाता है तथा उसे उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं हो पाता है। एक ओर जहाँ संवेगों की सहायता से व्यक्ति साहसिक तथा प्रशंसनीय कार्य करता है, वहीं दूसरी ओर संवेगों के वशीभूत होकर वह पशूवत निंदनीय व्यवहार कर जाता है। क्रोध में व्यक्ति माता-पिता अथवा अध्यापकों के साथ अभद्र व्यवहार कर जाता है। काम वासना के वशीभूत होकर व्यक्ति नीच कार्य कर बैठता है। संवेग वास्तव में व्यक्ति को उत्तेजित करते हैं तथा उस उत्तेजना में व्यक्ति प्रशंसनीय तथा निंदनीय दोनो ही प्रकार के कार्य करता है । संवेग मानव के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है |
(2) संवेग का अर्थ
(Meaning of Emotion)
संवेग शब्द का शाब्दिक अर्थ है-वेग से युक्त अर्थात् जब व्यक्ति वेगवान होकर कार्य करता है तो उसे संवेग कहते हैं । अंग्रेजी भाषा में संवेग को इमोशन ( Emotion) कहते हैं । ‘इ’ (E) का अर्थ है-अंदर से तथा ‘मोशन’ (Motion) का अर्थ है गति | अतः इमोशन का अर्थ है-आन्तरिक भावों को बाहर की ओर गति देना । दसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संवेग आन्तरिक भावो का बाह्य प्रकाशन है। संवेग वास्तव में भावों का तीव्र होना है।
(3) संवेग का परिभाषा
(Deffenition Of Emotion)
(01) वूडवर्थ के शब्दों में–
“संवेग आवेश में आने की स्थिति है।
” lotion is a ‘moved’ or ‘stirred-up’ state of the individual.
-Woodworth
(02) पीoटीo यंग के अनुसार-
“संवेग मनोवैज्ञानिक कारणों से उत्पन्न व्यक्ति का तीब्र उपद्रव है जिसके अंतर्गत व्यवहार, चेतन अनुभव तथा अंतरंग क्रियायें सम्मिलित रहती है |
motion is an acute disturbance of the individual as a whole. psychological in origin, involving behaviour, conscious experience and visceral functioning.
–P.T.Young
(4) संवेगों के प्रकार
( Kinds of Emotions )
संवेग अनेक प्रकार के होते हैं। मैकडूगल (McDougal) ने 14 संवेगों का उल्लेख किया है, जिनमें से प्रत्येक एक-एक मूलप्रवत्ति (Instinct) से सम्बन्धित है। ये 14 संवेग निम्नवत हैं
- 1. भय (Fear)
- 2. क्रोध (Anger)
- 3. घृणा (Disgust)
- 4. वात्सल्य (Tenderness)
- 5. करुणा (Distress)
- 6. कामुकता (Lust)
- 7. आश्चर्य (Wonder)
- 8. आत्महीनता (Negative Self Feeling)
- 9. आत्म-अभिमान (Positive Self Feeling)
- 10. एकाकीपन (Lonlyness)
- 11. भूख (Hunger)
- 12. अधिकार (Feeling of Ownership)
- 13. कृतिभाव (Creativeness)
- 14. आमोद (Amusement)
भारतीय विद्वान केवल दो मुख्य संवेग स्वीकार करते हैं।
- (01) राग
- (02) द्वेष
इन दोनों मुख्य संवेगों को निम्न ढंग से अन्य संवेगों के रुप में व्यक्त किया जा सकता
(1) रागात्मक संवेग —
सम्मान, भक्ति, शृद्धा मित्रता, प्रेम, आसक्ति स्नेह, वात्सल्य, दया
अपने से बड़ों के प्रति राग अपने बराबर वालों के प्रति राग अपने से छोटों के प्रति राग
(2) द्वेषात्मक संवेग —-
अपने से बड़ों के प्रति द्वेष भय, कायरता, घृणा अपने बराबर वालों के प्रति द्वेष क्रोध, ईर्ष्या, जलन अपने से छोटों के प्रति द्वेषगर्व, अभिमान, अधिकार
कुछ संवेग ऐसे होते हैं जो नैसर्गिक होते हैं-जैसे भय, क्रोध, आश्चर्य, शोक आदि ।जवकि कुंछ संवेग ऐसे होते हैं जो धीरे-धीरे विकसित होते हैं- जैसे ईर्ष्या, प्रेम. घृणा आदि ।
जिन संवेगों से व्यक्ति को सूख मिलता है उन्हें सुखद संवेग अथवा धनात्मक संवेग (Positive Emotions) कहते हैं- जैसे प्रेम, स्नेह, मित्रता।
जिन संवेगों से व्यक्ति को दुख मिलता है उन्हें दुखद संवेग या दुखप्रद संवेग या ऋणात्मक संवेग ( Negative Emotions) कहते हैं-जैसे भय, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या ।
(5) संवेग की विशेषताएं
(Characteristics of Emotions)
- 1. संवेगों की व्यापकता Universality of Emotions
- 2. शारीरिक परिवर्तन Bodily Changes
- 3. विचार प्रकिर्या का का लोप हो जाना Not Functioning of Thinking Process
- 4. व्यक्तिगतता (Individuality)
- 5. संवेगों की अस्थिरता (Instability of EmotionsO)
- 6. संवेगों का स्थानान्तरण (Transfer of Emotions)
- 7.मूल प्रवृत्तियों से सम्बन्ध (Relations with Instincts )
- 8. संवेगों की क्रियात्मक प्रवृत्ति (Conative Tendency in Emotions )
- 9.सुख-दुख का भाव निहित होना (Inclusion of the Feeling of Pleasure or Pain )
1. संवेगों की व्यापकता
Universality of Emotions
संवेग सभी प्राणियों में पाए जाते हैं। मानव हो अथवा पशु-पक्षी, बालक हो अथवा वृद्ध, सभी भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न संवेगों को प्रदर्शित करते हैं। सभी देशों के निवासियों में संवेग पाए जाते हैं।
2. शारीरिक परिवर्तन
Bodily Changes
संवेगों के उदय होने पर अस्थायी शारीरिक परिवर्तन हो जाते हैं। ये परिवर्तन दो प्रकार के हो सकते हैं
(i) आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन
(ii) बाह्य शारीरिक परिवर्तन।
आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों के अंतर्गत जल्दी-जल्दी श्वाँस लेना, हृदय की धड़कन का बढ़ जाना, पाचन क्रिया का प्रभावित हो जाना आदि प्रमुख हैं। बाह्य शारीरिक परिवर्तनों में आवाज में परिवर्तन आ जाना, मुखमडंल के प्रकाशन में अंतर आ जाना, अंग संचालन की गति में परिवर्तन आ जाना आदि प्रमुख हैं।
3. विचार प्रकिर्या का का लोप हो जाना
Not Functioning of Thinking Process
सांवेगिक दशा में व्यक्ति की विचार प्रक्रिया लुप्त हो जाती है। बुद्धि तथा विवेक का उसके व्यवहार पर नियंत्रण नहीं रहता है। वह उचित-अनुचित का विचार नही कर पाता है। यही कारण है कि व्यक्ति संवेगों के वशीभूत होकर अनेक ऐसे कार्य कर जाता है , जो वह सामान्य दशा में करना कदापि पसन्द नहीं करता है।
4. व्यक्तिगतता
(Individuality)
संवेगों की अभिव्यक्ति से व्यक्तिगतता होती है। एक ही स्थिति में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के भिन्न-भिन्न संवेग हो सकती है । जैसे किसी गरीब बच्चे को भीषण शीत में ठिठुरता देखकर उसे पहनने के लिए पुराने कपड़े दयावश दे देता है, जबकि अन्य कोई व्यक्ति स्थिति पर हँस सकता है । इसी प्रकार से पुत्र के शैतानी करने पर किसी पिता को क्रोध आ सकता है,जबकि किसी अन्य पिता के चेहरे पर मन्द मुस्कान तिरोहित हो सकती है।
5. संवेगों की अस्थिरता
Instability of Emotions
संवेगों की प्रकृति अस्थायी (Temporary) होती है। संवेग थोड़े समय तक रहते हैं, फिर व्यक्ति सामान्य स्थिति में आ जाता है । क्रोध की मनोदशा में माँ अपने बच्चों को डाँटती है, परंतु थोडी देर बाद ही वह सामान्य हो जाती है। इसी प्रकार से करूणा, घृणा, भय, आश्चर्य, कामुकता आदि संवेग कुछ समय के उपरान्त शान्त हो जाते हैं।
6. संवेगों का स्थानान्तरण
Transfer of Emotions
संवेग कभी-कभा स्थानान्तिरत हो जाते हैं। जैसे यदि कोई व्यक्ति क्रोध में अपने नौकर को डाँट रहा होता है तथा उस समय कोई अन्य व्यक्ति आकर उससे कुछ बात करना चाहता है तो व्यक्ति को आगन्तुक पर भी क्रोध आने लगता है।
7.मूल प्रवृत्तियों से सम्बन्ध
Relations with Instincts
संवेगों की उत्पत्ति मूल प्रवृत्तियों से होती है जैसे जिज्ञासा प्रवृत्ति से आश्चर्य की उत्पत्ति होता है।
8. संवेगों की क्रियात्मक प्रवृत्ति
Conative Tendency in Emotions
संवेगों का सम्बन्ध क्रियात्मक प्रवृत्तियों से होता है। प्रत्येक संवेग किसी न किसी एक क्रियात्मक प्रवृत्ति से सम्बंधित होता है। भय में व्यक्ति भागता है, आमोद में व्यक्ति हँसता है तथा क्रोध में व्यक्ति की भवें तन जाती हैं।
9.सुख-दुख का भाव निहित होना
Inclusion of the Feeling of Pleasure or Pain
संवेगों में या तो दुख का भाव निहित होता है अथवा सुख का भाव निहित होता है। प्रेम, स्नेह व वात्सल्य जैसे संवेगों में सुख का भाव निहित रहता है जबकि भय, घृणा, ईर्ष्या जैसे संवेगों में दुख का भाव निहित रहता है।
(6) संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
(Factors Affecting Emotional Development)
शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारक निम्नांकित हैं
- 1. वंशानुक्रम (Heredity)
- 2. स्वास्थ्य (Health)
- 3. थकान (Fatigue)
- 4. मानसिक योग्यता (Mental Abilities)
- 5. परिवार का वातावरण -Environment of the Family
- 6. अभिभावकों का दृष्टिकोण Attitude of Parents
- 7. सामाजिक-आर्थिक स्थिति- Socio-Economic Status
- 8. सामाजिक स्वीकृति -Social Acceptance
- 9.विद्यालय (School)
शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारक निम्नांकित हैं
1. वंशानुक्रम (Heredity)
व्यक्ति वंशानुक्रम से अनेक शारीरिक तथा मानसिक गुण व योग्यतायें प्राप्त करता है। इन शारीरिक तथा मानसिक गुणों का व्यक्ति के संवेगात्मक विकास पर प्रभाव पड़ता है।
2. स्वास्थ्य (Health)
व्यक्ति के शारीरिक स्वास्थ्य का उसके संवेगात्मक व्यवहार से घनिष्ठ संबंध होता है। स्वस्थ्य व्यक्ति की अपेक्षा बीमार, रोगग्रस्त अथवा शारीरिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों में संवेगात्मक अस्थिरता अधिक होती है।
3. थकान (Fatigue)
थकान भी व्यक्ति के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। थके हए व्यक्ति में क्रोध, नाराजगी या चिड़चिड़ापन जैसे ऋणात्मक या अवांछनीय संवेग प्रदर्शित करने की अधिक प्रवृति पाई जाती है।
4. मानसिक योग्यता (Mental Abilities)
व्यक्ति के संवेगात्मक व्यवहार पर उसकी मानसिक क्षमता का अत्याधिक प्रभाव पड़ता है। अधिक बुद्धिमान व्यक्तियों का संवेगात्मक क्षेत्र विस्तृत होता है। उच्च मानसिक क्षमता वाले बालकों में अपने संवेगों को नियंत्रित करने की अधिक क्षमता होती है।
5. परिवार का वातावरण Environment of the Family
परिवार के वातावरण तथा सदस्यों का संवेगात्मक व्यवहार भी बालकों के संवेगात्मक विकास को तीन ढंग से प्रभावित करता है। प्रथम, यदि परिवार में शांति, सुरक्षा व स्नेह का वातावरण होता है तो बालक का संतुलित ढंग से संवेगात्मक विकास होता है। द्वितीय, यदि परिवार में कलहपूर्ण, अत्यधिक सामाजिक तथा मौज-मस्ती का वातावरण रहता है तो बालकों में अत्यधिक संवेग उत्पन्न हो जाते हैं। तृतीय, यदि परिवार के सदस्य अत्यधिक संवेदनशील होते हैं तथा अत्यधिक संवेगात्मक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तो बालक भी अत्यधिक संवेदनशील होकर संवेगात्मक व्यवहार करते हैं।
6. अभिभावकों का दृष्टिकोण Attitude of Parents
बालकों के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण तथा व्यवहार भी बालकों के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करता है। बच्चों की उपेक्षा करना, घर से अधिक समय बाहर रहना, बच्चों के संबंध में अत्यधिक चिंतित रहना, बच्चों को अत्यधिक संरक्षण देना, बच्चों को बालसुलभ अनुभवों से वंचित रखना, बच्चों को अत्यधिक लाड़प्यार करना अथवा बच्चों के प्रत्येक कार्य में हस्तक्षेप करना जैसे व्यवहार बच्चों में अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार विकसित कर देते है।
7. सामाजिक-आर्थिक स्थिति Socio-Economic Status
परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। उन सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले बालक-बालिकाओं में निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले बालक-बालिकाओं की तुलना में संवेगात्मक स्थिरता अधिक होती है। निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले बालक-बालिकायें धनी बालकों को उत्तम खानपान, वेशभूषा, सुख व एश्वर्य से युक्त देखते हैं जिसके फल्वरूप उनमें ईर्ष्या, देष जैसे ऋणात्मक संवेग अधिक विकसित हो जाते हैं।
8. सामाजिक स्वीकृति (Social Acceptance)
व्यक्ति के द्वारा किये गये कार्यों के फलस्वरुप प्राप्त सामाजिक स्वीकृति भी उसके संवेगात्मक विकास को प्रभावित करती है। व्यक्ति अपने कार्यों की दूसरों के द्वारा प्रशंसा चाहता है। जब उसकी अभिलाषा पूर्ण नहीं होती है तब उसमें संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है । वास्तव में यदि व्यक्ति को अपने कार्यों की सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती है तो उसका संवेगात्मक व्यवहार या तो शिथिल हो जाता है अथवा उग्र हो जाता है।
9.विद्यालय (School);
विद्यालय का बालकों के संवेगात्मक विकास पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। बालक विभिन्न क्रियाओं के द्वारा अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करता है। यदि विद्यालय का वातावरण, पाठ्यक्रम, कार्यक्रम, शिक्षक वृन्द इत्यादि बालकों के संवेगों के अनुकूल होते हैं तो उन्हें आनन्द की प्राप्ति होती है तथा उनका स्वस्थ संवेगात्मक विकास होता है। इसके विपरीत विद्यालयी वातावरण से तालमेल न होने पर, परीक्षा में असफल हो जाने पर, अध्यापकों के अत्यधिक शुष्क व्यवहार आदि के कारण बालकों में अवांछित संवेग जैसे भय, क्रोध, चिडचिडाहट या घृणा आदि उत्पन्न हो जाते हैं । अध्यापकगण बालकों के समक्ष अच्छे तथा बुरे उदाहरण प्रस्तुत करके उनको साहसी या डरपोक, क्रोधी या सहनशील, शांत या कलहप्रिय बना सकते हैं। अच्छी आदतों के निर्माण तथा अच्छे आदर्शों का अनुसरण करने की इच्छा संवेगों को नियंत्रित करने की क्षमता प्रदान करती है।
(7) उपसंहार
मानव जीवन में संवेगों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति के व्यवहार का संबंध संवेगों से होता है तथा शिक्षा का संबंध व्यवहार के परिशोधन से होता है। इसलिये बालकों के संवेगात्मक व्यवहार का अध्ययन करना शैक्षिक दष्टि से अत्यंत उपयोगी है। माता-पिता तथा अध्यापकों को बालकों के संवेगात्मक व्यवहार का अध्ययन करके उनका उचित मार्गदर्शन करना चाहिए। शिक्षा के द्वारा अवांछित संवेगों को नियंत्रित करने तथा वांछित संवेगों को प्रोत्साहित करने के प्रयास किये जाने चाहिए। बालकों के वातावरण को इस प्रकार से नियंत्रित करना चाहिए कि एक ओर जहाँ उनमें अवांछित संवेगों का उदय न हो सके, वहीं दूसरी ओर उनमें वांछित संवेगों का संचार हो सके। शोधन (Sublimation), अध्यवसाय (Industriousness) तथा रेचन (Catharsis) के द्वारा संवेगों को नियन्त्रित किया जा सकता है। शोधन में अवांछित संवेगों को परिमाजित करके उन्हें अच्छी दिशा दी जा सकती है। जैसे क्रोध की
प्रवृत्ति को शत्रुओं की ओर या काम प्रवृत्ति को साहित्य की ओर परिवर्तित किया जा सकता है । अध्यवसाय में रत रहना, संवेगों को वशीभूत करने का एक अच्छा उपाय है। रेचन का तात्पर्य है कि संवेगों को आने से रोका न जाये वरन संवेगों को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त अवसर दिए जाएं। निःसंदेह अध्यापक तथा अभिभावकगण बालकों के संवेगात्मक विकास में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। पाठयसहगामी क्रियाओं जैसे नाटक, खेल, स्काउटिंग, भ्रमण आदि के माध्यम से छात्रों का उचित ढंग से संवेगात्मक विकास किया जा सकता है।
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